SUPREME COURT ORDER ON PENSION | HIGHER PENSION ORDER | PENSION NEWS
पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार ने पेंशन हेतु अर्हकारी सेवा और विधिमान्यकरण अध्यादेश को 21 अक्टूबर 2020 को पारित किया था। इस अध्यादेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को नोटिस जारी किया है। उत्तर प्रदेश ग्राउंड वॉटर डिपार्मेंट नॉन गजेटेड एंप्लाइज एसोसिएशन की दायर याचिका पर जस्टिस अब्दुल नजीर और जस्टिस के एम जोसेफ द्वारा सुनवाई की गई। इस याचिका में कहा गया था कि अध्यादेश को कार्य प्रभावित कर्मचारियों के खिलाफ शोषणकारी भेदभाव का उपचार किया बिना पारित किया गया है। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी इससे पहले और अमान्य कर दिया है।
जस्टिस अरुण मिश्रा के साथ जस्टिस नजीर और जस्टिस एम आर शाह की पीटने सेवा के अंतिम दिनों में नियमित हुए हजारों कार्य प्रभावित कर्मचारियों के पेंशन के अधिकार पर सुनवाई करते हुए प्रासंगिक नियमों को रद्द किया था। और पेंशन के लिए अर्हकारी सेवा की गणना के प्रावधानों को बताया था और निर्धारित किया था कि उत्तर प्रदेश राज्य में कार्य प्रभावित कर्मचारियों की सेवा की अवधि को पेंशन के लिएअर्हक सेवा की अवधि ओर गिना जाना चाहिए। यह फैसला जस्टिस अरुण मिश्रा के साथ जस्टिस नजीर और जस्टिस एम आर शाह की पीठ ने दिया था तो इस फैसले को स्वीकार कर लिया गया था। और इस फैसले से हजारों प्रभावित कर्मचारियों को पेंशन भी प्रदान की गई थी।
यह जो मौजूदा समय में याचिका दाखिल की गई थी तो इस याचिका में कहा गया था कि सितंबर 2020 में जब जस्टिस अरुण मिश्रा सेवानिवृत्त हुए तब उत्तर प्रदेश सरकार ने उक्त फैसले को प्रभावित करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया था। और अब तीसरी और चौथी श्रेणी के इन गरीब कर्मचारियों को दी गई पेंशन की वसूली की मांग की जा रही है। यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा इससे पहले जो आदेश दिया गया था तो उस आदेश को चुनौती है। और यह प्रतीत होता है की अध्यादेश जारी करते समय अक्टूबर 2020 में मा. जस्टिस अरुण मिश्रा की सेवानिवृत्ति की प्रतीक्षा की जा रही थी। और जैसे ही माननीय जस्टिस अरुण मिश्रा जी सेवानिवृत्त हुए उनके द्वारा यह जो अध्यादेश है वह जारी किया गया।
इससे कर्मचारियों की पेंशन को वसूली करने की मांग की जा रही है। सीनियर एडवोकेट पल्लव सिसोदिया ने इस अध्यादेश के बारे में याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि, यह अध्यादेश इस तथ्य के मद्देनजर अधिकारतीत है कि अधिनियम अध्यादेश को पूर्वव्यापी स्तर पर प्रभावी बनाया गया है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून को प्रभावहीन बनाता है। यानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा जो फैसला इससे पहले दिया गया है तो उस फैसले के अगेंस्ट में यह जो अध्यादेश है वह है। यह उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के विरोध में कार्रवाई करने जैसा है।
जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई कानून घोषित किया जाता है तो इसे विधायिका को छोड़कर इसे कोई अन्य खारिज नहीं कर सकता है। विधायिका संशोधन लागू करके अदालत के फैसले के प्रभाव को कम किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रेम सिंह बनाम यूपी राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए उक्त अध्यादेश जारी किया है। इस याचिका में यह भी कहा गया है कि प्रतिवादी राज्य द्वारा विधाई अधिनियम को पूर्वस्तर पर लागू करना सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णय के प्रभाव को खत्म करने के अलावा कुछ नहीं है।
इसके बाद सुनवाई में एडवोकेट राजू दुबे और शिल्पा लीजा जॉर्ज के माध्यम से याचिका में दलील दी गई कि अध्यादेश के माध्यम से उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रावधान किया है कि अर्हकारी सेवा के तहत पद के लिए सरकार द्वारा निर्धारित सेवा नियमों के प्रावधान के अनुसार अस्थाई पद पर प्रदान की गई सेवा को शामिल किया है। यह अध्यादेश नॉन ऑब्सटेंट क्लॉज प्रदान करके कोर्ट के आदेश को भी रद्द कर देता है। यह इस आदेश में प्रस्तुत किया गया है।
इसलिए याचिका में कहा गया है कि अध्यादेश के माध्यम से प्रेम सिंह के फैसले को कमजोर करने की कोशिश की गई है। क्योंकि सरकार द्वारा पद के लिए निर्धारित सेवा नियमों के प्रावधान के अनुसार किसी भी अस्थाई पद पर कार्य प्रभारी कर्मचारियों को नियोजित नहीं किया गया है इसलिए इस तरह की सेवा अर्हक सेवाओं का हिस्सा नहीं बनेगी।